Book Title: He Navkar Mahan
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Padmasagarsuriji

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Page 37
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 79 आत www.kobatirth.org साथ ही उक्त क्रीडांगणों को नेत्रों से देखकर जी भरकर सौंदर्य का पान किया और मैं धन्य बना । तेरा स्पर्श असम्भावित है, तो भी मेरी नस नस पुलकित हो उठी हैं । अतः मैं धन्य बना हूँ । तेरी मधुर व मंजुल पुकार सुनकर मेरे कर्णयुगल सुधावाणी रस के स्वादु हो गये है । अतः मैं धन्य बना हूँ । तेरे स्पर्श को आँचल में संजोकर प्रवाहित वायु ने मेरी नासिका को प्राणवायु प्रदान किया है और मैं धन्य बना हूँ अतः मैंने जो देखा है और अनुभव किया है-' वह अनुपमेय है, अतुल्य है ! विदाई के दिन मैं यही घोषित करता हूँ ! और यही मेरी विदाई के अंतिम शब्द हैं ! ! क्रि PS २४ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२. मृत्यु के बाद तेरे गीत गाते गाते यह प्राण चले जाये तो कितना अच्छा ! मैं अपने इष्ट मित्र और सगे-संबंधियों को For Private And Personal Use Only बालमित्र नवकार ! हे नवकार महान

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