Book Title: Gyansara Ashtak Author(s): Yashovijay Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 8
________________ भावार्थ : हे वत्स ! मन को चंचल बनाकर तू भटक भटक कर क्यों दुःखी होता है ? तेरा खजाना तेरे पास ही है ! तेरी स्थिरता ही उस निधान को दिखायेगी ! ॥१॥ ज्ञानदुग्धं विनश्येत, लोभविक्षोभकूर्चकैः । अम्लद्रव्यादिवास्थैर्या दिति मत्वा स्थिरो भव ॥ २ ॥ भावार्थ : खट्टे पदार्थों के स्पर्श से दूध बिगड़ जाता है, उसी प्रकार लोभ के विकार रूप कूर्चकों से ज्ञानरूप दूध बिगड़ जाता है, ऐसा समझकर स्थिर बन ! ॥२॥ अस्थिरे हृदये चित्रा, वाङ्नेत्राकारगोपना । पुंश्चल्या इव कल्याण - कारिणी न प्रकीर्तिता ॥ ३ ॥ भावार्थ : कुलटा स्त्री की तरह चित्त चंचल हो, फिर भी वाणी व नेत्रों के बाह्य आकार से उसे छिपाना, कल्याणकारी नहीं कहा गया है । (कल्याण तो इसी में है कि मन को ही स्थिर करें ) ॥३॥ अन्तर्गतं महाशल्य मस्थैर्यं यदि नोद्धृतम् । क्रियौषधस्य को दोष स्तदा गुणमयच्छतः ॥ ४ ॥ भावार्थ : यदि अस्थिरता रूप अंदर के महाशल्य को दूर न किया जाय तो क्रिया रूप औषधि लाभ नहीं करती । तो इसमें क्रिया का कोई दोष नहीं है ॥४॥ स्थिरता वाङ्मनःकायै र्येषामङ्गाङ्गितां गता । योगिनः समशीलास्ते ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥ ५ ॥ ८Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80