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है उसे भय की भ्रांति द्वारा प्राप्त खिन्नता की परम्परा का अल्पत्व क्यों नहीं होगा? अर्थात् उसे खिन्न होना ही नहीं पड़ेगा, क्योंकि उसे कोई भय न होगा, कोई भ्रान्ति नहीं होगी ॥१॥ भवसौख्येन किं भूरि, भयज्वलनभस्मना ? । सदा भयोज्झितं ज्ञान, सुखमेव विशिष्यते ॥ २ ॥
भावार्थ : ऐसे संसार के सुख से क्या लाभ ? जो अति भय रूप अग्नि से भस्म हो गया हो ! वास्तव में भयरहित ज्ञानसुख ही सच्चा सुख है ॥२॥ न गोप्यं क्वापि नारोप्यं, हेयं देयं न च क्वचित् । क्व भयेन मुनेः स्थेयं, ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यतः ? ॥ ३ ॥
भावार्थ : जिसने ज्ञेय तत्त्व को अपने ज्ञान से देख लिया है, ऐसे मुनि को कहीं पर भी कोई भय नहीं है क्योंकि उसकी सम्पदा न गोपनीय है, न कहीं आरोपित करने योग्य है, न छोड़ने योग्य है, न देने योग्य है ॥३॥ एकं ब्रह्मास्त्रमादाय, निघ्नन्मोहच{ मुनिः । बिभेति नैव संग्राम, शीर्षस्थ इव नागराट् ॥ ४ ॥
भावार्थ : एक ब्रह्मज्ञानरूप शस्त्र से सुसज्ज होकर मोहरूप शत्रुसेना का संहार करता हुआ संग्राम के शीर्ष पर (सबसे आगे) रहते उत्तम हाथी के समान मुनि कभी भय को प्राप्त नहीं करता ॥४॥