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यात्रया
आत्मसाक्षिकसद्धर्म, सिद्धौ किं लोकयात्रया । तत्र प्रसन्नचन्द्रश्च, भरतश्च निदर्शनं ॥ ७ ॥
भावार्थ : प्रसन्नचंद्र राजर्षि व भरत महाराजा के दृष्टांत से यह स्पष्ट है कि आत्मसाक्षी से युक्त सत्य धर्म की सिद्धि अर्थात् प्राप्ति होने के बाद लोक व्यवहार का क्या काम है ? ॥७॥ लोकसंज्ञोज्झितः साधुः, परब्रह्मसमाधिमान् । सुखमास्ते गतद्रोह, ममतामत्सरज्वरः ॥ ८ ॥
भावार्थ : लोकसंज्ञा से रहित, पर ब्रह्म में समाधिरत, द्रोह, ममता, मत्सर (गुण-द्वेष) रूप ज्वर नाश कर दिया है, जिन्होंने, ऐसे साधु सुख में रहते हैं ॥८॥
शास्त्राष्टकम्-24 चर्मचक्षुर्भूतः सर्वे, देवाश्चावधिचक्षुषः । सर्वतश्चक्षुषः सिद्धाः, साधवः शास्त्रचक्षुषः ॥ १ ॥
भावार्थ : सभी मनुष्य चर्मचक्षु के धारक हैं, देव अवधिज्ञानरूप चक्षु के धारक हैं, सिद्ध सर्व आत्म प्रदेशों के केवलज्ञान-केवलदर्शन रूप चक्षु वाले हैं, जबकि साधुओं के पास तो शास्त्ररूप चक्षु होते हैं ॥१॥ पुरःस्थितानिवोर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकविवर्तिनः । सर्वान् भावानवेक्षन्ते, ज्ञानिनः शास्त्रचक्षुषा ॥ २ ॥
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