Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 62
________________ भावार्थ : योगी की कथा में प्रीति होना यह इच्छा योग कहलाता है उपयोग पूर्वक पालन करना यह प्रवृत्ति योग, अतिचार के भयों का त्याग स्थिरतायोग और अन्यों के अर्थ का साधन करना यह सिद्धयोग कहलाता है ॥४॥ अर्थालम्बनयोश्चैत्य, वन्दनादौ विभावनम् । श्रेयसे योगिनः स्थान, वर्णयोर्यत्न एव च ॥ ५ ॥ भावार्थ : चैत्यवंदन आदि क्रियाओं में अर्थ और आलम्बन का स्मरण करना तथा स्थान और वर्ण में उद्यम करना यही योगियों के लिये कल्याणकर है ॥५॥ आलम्बनमिह ज्ञेयं, द्विविधं रूप्यरूपि च । अरूपिगुणसायुज्य, योगोऽनालम्बनः परः ॥ ६ ॥ भावार्थ : रूपी और अरूपी ये आलम्बन के दो प्रकार हैं, उनमें अरूपी सिद्ध के स्वरूप के साथ तन्मयता रूप योग उत्कृष्ट अनालम्बन योग है ॥६॥ प्रीतिभक्तिवचोऽसङ्गैः, स्थानाद्यपि चतुर्विधम् । तस्मादयोगयोगाप्तेर्मोक्षयोगः क्रमाद् भवेत् ॥ ७ ॥ भावार्थ : प्रीति, भक्ति, वचन तथा असंग अनुष्ठान ये स्थानादि योग के चार प्रकार हैं । उस योग से योग-निरोध रूप योग की प्राप्ति होने से क्रमशः मोक्ष योग प्राप्त हो जाता है ॥७॥

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