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केषां न कल्पनादव, शास्त्रक्षीरान्नगाहिनी । विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया ॥ ५॥
भावार्थ : किसका कल्पनारूप चम्मच शास्त्र रूपी खीर में प्रविष्ट नहीं होता ? लेकिन अनुभवरूप जिह्वा के द्वारा शास्त्र के आस्वाद को जानने वाले तो विरले ही होते हैं ॥५॥ पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं, निर्द्वन्द्वानुभवं विना । कथं लिपिमयी दृष्टिर्वाङ्मयी वा मनोमयी ॥ ६ ॥
भावार्थ : राग द्वेषादि क्लेशरहित शुद्ध अनुभव ज्ञान के बिना मात्र शास्त्र दृष्टि, वाणी रूप दृष्टि अथवा मनन रूप दृष्टि उस निर्द्वन्द्व राग द्वेष रहित आत्मा को कैसे देख सकती है ॥६॥ न सुषुप्तिरमोहत्वाद्, नापि च स्वापजागरौ । कल्पनाशिल्पविश्रान्ते, स्तुर्यैवानुभवो दशा ॥ ७ ॥
भावार्थ : यह अनुभव मोहरहित होने से निद्रारूप सुषुप्ति दशा नहीं है, कल्पना रूप कला का भी इसमें अभाव होने से स्वप्न अथवा जागृत दशा भी नहीं हैं । यह तो चौथी दशा ही है ॥७॥ अधिगत्याखिलं शब्दब्रह्मशास्त्रदृशा मुनिः । स्वसंवेद्यं परं ब्रह्मा, नुभवेनाधिगच्छति ॥ ८ ॥
भावार्थ : मुनि शास्त्र दृष्टि से सकल शब्द ब्रह्म को जानकर अनुभव के द्वारा स्वयं प्रकाश ऐसे परम ब्रह्म अर्थात् परमात्मा स्वरूप को जानता है ॥८॥
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