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अन्तरंग तप ही इष्ट है, बाह्य तप तो उसका सहायक अर्थात् उसकी वृद्धि करने वाला है ॥१॥ आनुस्रोतसिकी वृत्तिर्बालानां सुखशीलता । प्रातिस्रोतसिकी वृत्तिर्ज्ञानिनां परमं तपः ॥ २ ॥
भावार्थ : सुखशीलता भरी, संसार के प्रवाह का अनुसरण करने वाली वृत्ति अज्ञानियों की होती है और संसार के प्रवाह के विपरीत अर्थात् सम्मुख ऐसा परमतप ज्ञानियों की वृत्ति है
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धनार्थिनां यथा नास्ति, शीततापादि दुःसहम् । तथा भवविरक्तानां तत्त्वज्ञानार्थिनामपि ॥ ३ ॥
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भावार्थ : जिसप्रकार धन के अभिलाषी के लिये सर्दी गर्मी आदि के कष्ट दुस्सह नहीं होते, उसी प्रकार संसार से विरक्त तत्त्व ज्ञान के अभिलाषी (साधको) के लिये भी कोई कष्ट दुस्सह नहीं होता ||३||
सदुपायप्रवृत्तानामुपेयमधुरत्वतः । ज्ञानिनां नित्यमानन्द, वृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥ ४ ॥
भावार्थ : सद् उपाय में प्रवृत्त ज्ञान ऐसे तपस्वियों को मोक्ष रूप साध्य के मिठास से हमेशा आनंद की वृद्धि ही होती है ॥ ४ ॥ इत्थं च दुःखरूपत्वात्, तपो व्यर्थमितीच्छताम् । बौद्धानां निहता बुद्धिबद्धानन्दाऽपरिक्षयात् ॥ ५ ॥
भावार्थ : " इसप्रकार दुःखरूप होने से तप निष्फल है" ऐसी मान्यता वाले बौद्धों की बुद्धि कुंठित बनी हुई है,
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