Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 69
________________ नासिका के अग्रभाग पर अपनी दृष्टि का स्थापन किया है, जो योगसहित है ॥६॥ रुद्धबाह्यमनोवृत्तेर्धारणाधारया रयात् । प्रसन्नस्याऽप्रमत्तस्य, चिदानन्दसुधालिहः ॥ ७ ॥ भावार्थ : ध्येय में मन की स्थिरतारूप धारण की सतत् धारा के वेग से जिसने बाह्य इन्द्रियों का अनुसरण करने वाली मन की वृत्ति को रोका है, जो प्रसन्न मन वाला है, प्रमादरहित है, ज्ञानानन्द रूप अमृत का आस्वादन करने वाला है ॥७॥ साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्वमन्तरेव वितन्वतः । ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि ॥ ८ ॥ भावार्थ : अपनी अन्तरात्मा में ही विपक्षरहित अपने साम्राज्य का विस्तार करता हुआ ऐसे ध्यानवंत साधकों की देवलोक और मनुष्यलोक में भी वास्तव में कोई उपमा नहीं है ||८|| तपोष्टकम् - 31 ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः । तदाभ्यन्तरमेवेष्टं, बाह्यं तदुपबृंहकम् ॥ १ ॥ भावार्थ : कर्मों को तपाने वाला होने से तप यह ज्ञान ही है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है । ( तप के दो भेदों में से ) ६९

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