Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 73
________________ श्रेयःसर्व नयज्ञानां, विपुलं धर्मवादतः ।। शुष्कवादाद्विवादाच्च, परेषां तु विपर्ययः ॥ ५ ॥ भावार्थ : सभी नयों को जानने वालों का धर्मवाद से बहुत कल्याण होता है । अन्य एकान्त दृष्टि वालों का तो शुष्कवाद और विवाद से अकल्याण ही होता है ॥५॥ प्रकाशितं जनानां यैर्मतं सर्वनयाश्रितम् । चित्ते परिणतं चेदं, येषां तेभ्यो नमोनमः ॥ ६ ॥ भावार्थ : जिन महापुरुषों ने सभी नयों से आश्रित प्रवचन लोगों के लिए प्रकाशित किया है और जिनके चित्त में (वह प्रवचन) परिणत हो गया है उनको वारंवार नमस्कार हो ॥६।। निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एक पाक्षिकविश्लेष, मारूढाः शुद्धभूमिकाम् ॥ ७ ॥ भावार्थ : निश्चय नय में, व्यवहार नय में, ज्ञान में और क्रिया नय में एक पक्ष में स्थित भ्रांति के स्थान को छोड़कर शुद्ध भूमि का पर आरूढ़ और ॥७॥ अमूढलक्ष्याः सर्वत्र, पक्षपातविवर्जिताः । जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः ॥ ८ ॥ भावार्थ : जो लक्ष्य से विचलित नहीं है, सर्वत्र पक्षपात से रहित है, परमानन्द रूप सभी नयों के आश्रय भूत ऐसे ज्ञानी जयवन्त रहते हैं ॥८॥ ७३

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