Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 71
________________ क्योंकि बुद्धिजनित अन्तरंग आनंद की धारा कभी खण्डित नहीं होती । (अर्थात् तप में भी आत्मिक आनंद की धारा अखण्डित होती है) ॥५॥ यत्र ब्रह्म जिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः । सानुबन्धा जिनाज्ञा च, तत्तपः शुद्धमिष्यते ॥६॥ भावार्थ : जिसमें ब्रह्मचर्य है, जिनपूजा है, कषायों का क्षय है तथा अनुबंधसहित जिनाज्ञा प्रवर्त्तमान है, वह तप शुद्ध कहलाता है ॥६॥ तदेव हि तपः कार्य, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च ॥ ७ ॥ भावार्थ : निश्चय से वही तप करने योग्य है, जिसमें दुर्ध्यान नहीं होता, जिसमें मन वचन काया के योगों की हानि नहीं होती और इन्द्रियों का क्षय नहीं होता ॥७॥ मूलोत्तरगुणश्रेणि, प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये ।। बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं, तपः कुर्यान्महामुनिः ॥ ८ ॥ भावार्थ : मूलगुण और उत्तरगुण की श्रेणिरूप विशाल साम्राज्य की सिद्धि के लिये महामुनि बाह्य और आभ्यन्तर तप करें ॥८॥ सर्वनयाश्रयाष्टकम्-32 धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्युर्भावे कृतविश्रमाः । चारित्रगुणलीनः स्यादिति सर्वनयाश्रितः ॥ १ ॥

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