Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 72
________________ भावार्थ : अपनी-अपनी मान्यता को सिद्ध करने के लिए दौड़ते हुए भी सभी नय वस्तु के उस-उस स्वभाव में स्थिर होते हैं । चारित्रगुण में लीन बना हुआ साधु सभी नयों का आश्रय करने वाला होता है ॥ १ ॥ पृथग्नया मिथ: पक्ष, प्रतिपक्षकदर्थिताः । समवृत्तिसुखास्वादी, ज्ञानी सर्वनयाश्रितः ॥ २॥ भावार्थ : अलग-अलग नय परस्पर वाद प्रतिवाद से विडंबित हैं । समभाव के सुख का अनुभव करने वाले महामुनि सर्व नयों के आश्रित होते हैं ||२|| नाप्रमाणं प्रमाणं वा, सर्वमप्यविशेषितम् । विशेषितं प्रमाणं स्यादिति सर्वनयज्ञता ॥ ३ ॥ भावार्थ : सभी वचन विशेष रहित हो तो एकान्त से वे न अप्रमाण हैं, न प्रमाण ही हैं, विशेष सहित ही प्रमाण हैं, इस प्रकार सभी नयों का ज्ञान होता है ॥३॥ लोके सर्वनयज्ञानां ताटस्थ्यं वाप्यनुग्रहः । स्यात् पृथङ्नयमूढानां स्मयार्तिर्वातिविग्रहः ॥ ४ ॥ भावार्थ : लोक में सभी नयों के जानकार को माध्यस्थ भाव अथवा उपकार बुद्धि होती है । अलग-अलग नयों में मोहग्रस्त (आत्मा) को अभिमान की पीड़ा अथवा अत्यंन्त क्लेश होता है ॥४॥ ७२

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