Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 68
________________ मणाविव प्रतिच्छाया, समापत्तिः परात्मनः । क्षीणवृत्तौ भवेद् ध्याना, दन्तरात्मनि निर्मले ॥ ३ ॥ भावार्थ : जिस प्रकार मणि में अन्य वस्तु का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, उसी प्रकार क्षीण वृत्ति वाले शुद्ध-निर्मल अन्तरात्मा में ध्यान द्वारा परमात्मा का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है, इसी को समापत्ति कहते हैं ॥३॥ आपत्तिश्च ततः पुण्य, तीर्थकृत्कर्मबन्धतः । तद्भावाभिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमाद् भवेत् ॥ ४ ॥ भावार्थ : उस समापत्ति से पुण्यप्रकृति रूप तीर्थंकर नामकर्म के बंधस्वरूप फल की प्राप्ति होती है और तीर्थंकर नामकर्म की अभिमुखता से क्रमशः आत्मिक संपत्ति रूप फल होता है ॥४॥ इत्थं ध्यानफलाद्युक्तं, विंशतिस्थानकाद्यपि । कष्टमात्रं त्वभव्यानामपि नो दुर्लभं भवे ॥ ५ ॥ भावार्थ : इसप्रकार के ध्यानफल से ही वीशस्थानक आदि तप भी योग्य हैं । कष्ट मात्र रूप तप तो इस संसार में अभव्यों को भी दुर्लभ नहीं है ॥५॥ जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिरात्मनः । सुखासनस्य नासाग्र, न्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥ ६ ॥ भावार्थ : जो जितेन्द्रिय है, धैर्यशाली है, प्रशान्त है, जिसकी आत्मा स्थिर है, सुखासन पर स्थित है, जिसने ६८

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