Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 66
________________ क्षमापुष्पस्रजं धर्म, युग्मक्षौमद्वयं तथा । ध्यानाभरणसारं च, तदङ्गे विनिवेशय ॥३॥ भावार्थ : उस शुद्ध आत्मदेव को क्षमारूप फूल की माला अर्पण कर, निश्चय और व्यवहार धर्म रूप दो वस्त्र तथा ध्यान रूप श्रेष्ठ अलंकार अर्पण कर ॥३॥ मदस्थानभिदात्यागैलिखाग्रे चाष्टमङ्गलम् । ज्ञानाग्नौ शुभसंकल्प, काकतुण्डं च धूपय ॥ ४ ॥ भावार्थ : उस परमात्मा के सामने आठ मद स्थानों के त्यागरूप अष्ट मंगल का आलेखन कर और ज्ञानरूप अग्नि में शुभ संकल्प रूप कृष्णागरु का धूप कर ॥४॥ प्राग्धर्मलवणोत्तारं, धर्मसन्यासवह्निना ।। कुर्वन् पूरय सामर्थ्य, राजन्नीराजनाविधिम् ॥ ५ ॥ भावार्थ : धर्मसंन्यासरूप अग्नि के द्वारा पूर्व का क्षायोपशमिक धर्म रूप लून उतारता हुआ सामर्थ्य योग रूप देदीप्यमान आरती की विधि पूर्ण कर ॥५॥ स्फुरन् मङ्गलदीपं च, स्थापयानुभवं पुरः । योगनृत्यपरस्तौर्य, त्रिकसंयमवान् भव ॥ ६ ॥ भावार्थ : अनुभव रूप स्फुरायमान् मंगलदीप की शुद्ध आत्मदेव के समक्ष स्थापना कर । संयम योग रूप नाट्य पूजा में तत्पर बना हुआ तू गीत नृत्य और वाद्यंत्र इन तीनों के समूह के जैसा संयम वाला बन ॥६॥ ६६

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