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ब्रह्मयज्ञः परं कर्म, गृहस्थस्याधिकारिणः । पूजादि वीतरागस्य, ज्ञानमेव तु योगिनः ॥ ४॥
भावार्थ : अधिकारी गृहस्थ को मात्र वीतराग की पूजा आदि क्रिया ब्रह्मयज्ञ है और योगी के लिये तो ज्ञान ही ब्रह्मयज्ञ है ॥४॥
भिन्नोद्देशेन विहितं कर्म कर्मक्षयाक्षमम् ।
क्लृप्तभिन्नाधिकारं च पुत्रेष्ट्यादिवदिष्यताम् ॥ ५ ॥
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भावार्थ : भिन्न उद्देशसे शास्त्र में कहा हुआ अनुष्ठान कर्मक्षय करने में असमर्थ होता है । भिन्न अधिकार की कल्पना वाला जैसे पुत्र प्राप्ति के लिये किया जाने वाला यज्ञ आदि की तरह मानिये ॥५॥
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ब्रह्मार्पणमपि ब्रह्म, यज्ञान्तर्भावसाधनम् । ब्रह्माग्नौ कर्मणो युक्तं स्वकृतत्वस्मये हुते ॥ ६ ॥
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भावार्थ : ब्रह्मयज्ञ में अन्तर्भाव का साधन ब्रह्म को अर्पण करना भी ब्रह्मरूप अग्नि में कर्म का और स्व कर्तृत्व के अहंकार का हवन करने पर ही युक्त होता है || ६ || ब्रह्मण्यर्पितसर्वस्वो, ब्रह्मदृग् ब्रह्मसाधनः । ब्रह्मणा जुह्वदब्रह्म, ब्रह्मणि ब्रह्मगुप्तिमान् ॥ ७ ॥
भावार्थ : जिसने ब्रह्म में सर्वस्व अर्पण किया है, ब्रह्म में ही जिसकी दृष्टि है, ब्रह्मरूप ज्ञान ही जिसका साधन
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