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स्थानाद्ययोगिनस्तीर्थोच्छेदाद्यालम्बनादपि ।
सूत्रदाने महादोष, इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ८ ॥
भावार्थ : "तीर्थ का उच्छेद होगा" इत्यादि आलम्बन से भी स्थान आदि योग से रहित को सूत्रदान करने में महान् दोष है, ऐसा आचार्यों का कथन है ॥८॥
नियागाष्टकम् - 28
यः कर्म हुतवान् दीप्ते, ब्रह्माग्नौ ध्यानधाय्यया । स निश्चितेन यागेन, नियागप्रतिपत्तिमान् ॥ १ ॥
भावार्थ : जिसने प्रदीप्त ब्रह्मरूप अग्नि में ध्यान रूप वेद के मंत्रों द्वारा कर्मों का होम किया है उस मुनि ने निश्चित ही भाव यज्ञ द्वारा नियाग को प्राप्त किया है ॥१॥ पापध्वंसिनि निष्कामे, ज्ञानयज्ञे रतो भव । सावद्यैः कर्मयज्ञैः किं, भूतिकामनयाऽऽविलैः ? ॥ २ ॥ भावार्थ : पाप का नाश करने वाला और कामनारहित ऐसे ज्ञान यज्ञ में तू आसक्त बन । सुख की इच्छा द्वारा मलिन बने पाप सहित कर्म यज्ञों का क्या काम है ? ॥२॥ वेदोक्तत्त्वान् मनः शुद्ध्या, कर्मयज्ञोऽपि योगिनः । ब्रह्मयज्ञ इतीच्छन्तः, श्येनयागं त्यजन्ति किम् ? ॥ ३ ॥
भावार्थ : वेदोक्त होने से मन की शुद्धि द्वारा किया गया कर्म - यज्ञ भी ज्ञान योगी के लिये ब्रह्मयज्ञ के समान है, ऐसा मानने वाले श्येन यज्ञ का फिर क्यों त्याग करते हैं ॥३॥
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