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भावार्थ : ज्ञानीपुरुष शास्त्ररूप चक्षु से ऊर्ध्व, अधो व तिर्यक् लोक में परिणमित हो रहे सभी भावों को प्रत्यक्ष देखते हैं ॥२॥ शासनात्त्राणशक्तेश्च, बुधैः शास्त्रं निरुच्यते । वचनं वीतरागस्य, तत्तु नान्यस्य कस्यचित् ॥ ३ ॥
___ भावार्थ : 'हितोपदेश व रक्षा का सामर्थ्य' ऐसी 'शास्त्र' शब्द की व्युत्पत्ति पंडितजन करते हैं । (वास्तव में) वीतराग के वचन ही शास्त्र हैं, किसी अन्य के नहीं ॥३॥ शास्त्रे पुरस्कृते तस्माद्, वीतरागः पुरस्कृतः । पुरस्कृते पुनस्तस्मिन्, नियमात् सर्वसिद्धयः ॥ ४ ॥
भावार्थ : शास्त्र को पुरस्कृत किया अर्थात् वीतराग को पुरस्कृत किया । वीतराग को स्वीकार किया अर्थात् शास्त्र को स्वीकार किया । इसका अर्थ है-शास्त्र वीतराग ही है और वीतराग ही शास्त्र है । इस प्रकार नियम से सर्वसिद्धि होती है ॥४॥ अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः, शास्त्रदीपं विना जडाः । प्राप्नुवन्ति परं खेदं, प्रस्खलन्तः पदेपदे ॥ ५ ॥
भावार्थ : शास्त्ररूप दीपक के अभाव में अदृष्ट (परोक्ष) अर्थ में पीछे दौड़ते हुए मूढ़ मनुष्य दर-दर पगपग पर ठोकरें खाते हैं और खिन्न होते हैं ॥५॥