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भावार्थ : जो राशि से पीछे नहीं हटता, अपनी वक्रता कभी छोड़ता नहीं, जिसने तीनों जगत को विडम्बना दी है, ऐसा परिग्रहरूप ग्रह और कौन - सा है ? ॥१॥
परिग्रहग्रहाऽऽवेशाद्, दुर्भाषितरजः किराम् । श्रूयन्ते विकृताः किं न, प्रलापा लिङिगनामपि ? ॥ २ ॥ भावार्थ : परिग्रहरूप ग्रह के प्रवेश से उत्सूत्र भाषण रूप धूल उड़ाते हुए वेषधारियों का विकृत प्रलाप क्या सुनने में नहीं आता ? ॥२॥
यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदाम्भोजं, पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥ ३ ॥
भावार्थ : जो बाह्य- आभ्यन्तर परिग्रह को तृण समान छोड़कर उदासीन रहता है उसके चरणकमल को तीनों जगत पूजता है ||३||
चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने, बहिर्निग्रन्थता वृथा । त्यागात् कञ्चुकमात्रस्य, भुजगो नहि निर्विषः ॥ ४ ॥ भावार्थ : यदि अन्तरंग परिग्रह से मन व्याकुल है तो बाह्य निर्ग्रन्थत्व व्यर्थ है । मात्र कांचुली छोड़ देने से सर्प विषरहित नहीं बन जाता ॥४॥
त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः । पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ॥ ५ ॥
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