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भावार्थ : लोकसंज्ञा रूप विशाल नदी में लोक प्रवाह का अनुसरण करने वाले कौन नहीं हैं ? जबकि प्रवाह के सामने चलने वाले राजहंस जैसे तो महामुनीश्वर एक ही हैं
॥३॥
लोकमालम्ब्य कर्तव्यं, कृतं बहुभिरेव चेत् ।
तदा मिथ्यादृशां धर्मो, न त्याज्यः स्यात् कदाचन ॥ ४ ॥ भावार्थ : लोक का आलंबन लेकर यदि अधिक मनुष्यों द्वारा किया गया काम ही योग्य हो तब तो मिथ्यादृष्टि लोकों का धर्म भी त्याज्य नहीं माना जा सकता ॥४॥ श्रेयोऽर्थिनो हि भूयांसो, लोके लोकोत्तरे न च । स्तोका हि रत्नवणिजः, स्तोकाश्च स्वात्मसाधकाः ॥ ५ ॥
भावार्थ : निश्चित ही लोक में / लोकोत्तर में मोक्ष के अभिलाषी थोड़े ही हैं । जिस प्रकार रत्नों के व्यापारी थोड़े ही होते हैं उसी प्रकार अपनी आत्मा की साधना करने वाले भी थोड़े ही होते हैं ||५||
लोकसंज्ञाहता हन्त !, नीचैर्गमनदर्शनैः । शंसयन्ति स्वसत्याङ्गमर्मघातमहाव्यथाम् ॥ ६ ॥
भावार्थ : लोक संज्ञा से आहत हुए लोगों के धीरे चलने से व नीचे देखने से अपने सत्यव्रत रूप अंग में मर्म प्रहार की महाव्यथा प्रकट होती है ॥६॥
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