Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 51
________________ भावार्थ : जहाँ दुर्बुद्धि, मत्सर द्रोह रूप बिजलियाँ चमकती हैं, भयंकर तूफान चलता है, गर्जना होती है और इस कारण समुद्र में सफर करने वाले लोग तूफान रूप संकट में फंस जाते हैं ॥४॥ ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेनित्योद्विग्नोऽतिदारुणात् । तस्य संतरणोपायं, सर्वयत्नेनकाक्षति ॥५॥ भावार्थ : ऐसे भयंकर संसारसमुद्र से उद्विग्न बने ज्ञानी पुरुष हमेशा पूर्ण प्रयत्न से ऐसे सागर को तैरने की इच्छा रखते हैं ॥५॥ तैलपात्रधरो यद्वद्, राधावेधोद्यतो यथा । क्रियास्वनन्यचित्तः स्याद्, भवभीतस्तथा मुनिः ॥ ६ ॥ भावार्थ : जिस प्रकार तेल के पात्र को धारण करने वाला, राधावेध साधने के लिये तत्पर बना हुआ व्यक्ति अपनी-अपनी क्रिया में अनन्य चित्त वाला अर्थात् पूर्ण एकाग्र चित्त हो जाता है, उसी प्रकार संसार से भय प्राप्त साधु चारित्र क्रिया में पूर्ण एकाग्र चित्त हो जाता है ॥६॥ विषं विषस्य वह्वेश्च, वह्निरेव यदौषधम् । तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः ॥ ७ ॥ भावार्थ : विष ही विष का तथा अग्नि ही अग्नि का औषध बनता है, यह सत्य है । उसी प्रकार संसार से ५१

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