Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 44
________________ ग्रामारामादि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा । तत्त्व दृष्ट्या तदेवान्त, नतं वैराग्यसंपदे ॥ ३ ॥ भावार्थ : बाह्य दृष्टि से देखे जाने वाले ग्राम - बगीचे आदि मोह के निमित्त बनते हैं । जबकि तत्त्व दृष्टि से देखने पर वे ही (ग्राम-बगीचे आदि) आत्मा में वैराग्य सम्पदा का आधार बन जाते हैं ||३|| बाह्यदृष्टेः सुधासार, घटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वदृष्टस्तु सा साक्षाद्, विण्मूत्रपिठरोदरी ॥ ४ ॥ भावार्थ : बाह्य दृष्टि से देखने पर 'स्त्री' अमृतधार से युक्त सौन्दर्यवती दिखाई देती है । जबकि तत्त्वदृष्टि वाले को वही स्त्री प्रत्यक्ष विष्ठा और मूत्र के घर के समान उदर वाली लगती है ॥४॥ लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यदृग् । तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमिकुलाकुलम् ॥ ५ ॥ 1 , भावार्थ : ' बाह्यदृष्टि' सौन्दर्य के तरंगों से पवित्र शरीर देखता है, जबकि तत्त्व - दृष्टि कौओं तथा कुत्तों के खाने योग्य कृमि-समूह से भरा हुआ देखता है ||५|| गजाश्वैर्भूपभवनं, विस्मयाय बहिर्दृशः । तत्राश्वेभवनात्कोऽपि, भेदस्तत्त्वदृशस्तु न ॥ ६ ॥ भावार्थ : बाह्य दृष्टि गज, अश्व सहित राजमहल को देखकर ( मुग्ध होकर ) विस्मय प्राप्त करता है, जबकि ४४

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