Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 42
________________ उच्चत्वदृष्टिदोषोत्थ, स्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो, भृशं नीचत्वभावनम् ॥ ४ ॥ भावार्थ : उचत्व- दृष्टि के दोष से मन में जो अभिमान रूप ज्वर पैदा हुआ है, उसकी शान्ति के लिये ऐसी भावना भानी चाहिये कि पूर्व में अनेक महापुरुष सिंह रूप हुए हैं, मैं उन सबसे न्यून अर्थात् छोटा हूँ ॥४॥ शरीररूपलावण्य, ग्रामारामधनादिभिः । उत्कर्षः परपर्यायैश्चिदानन्दघनस्य कः ? ॥ ५ ॥ भावार्थ : जो ज्ञानानंद से भरपूर है वह शरीर के रूप लावण्य, गाँव, बगीचा, धन आदि पर - पर्यायों का अभिमान क्या करेगा ? ॥५॥ शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः । अशुद्धाश्चापकृष्टत्वान्, नोत्कर्षाय महामुनेः ॥ ६॥ │ भावार्थ : शुद्ध नय की दृष्टि से हर आत्मा के शुद्ध पर्याय एक समान हैं । और, अशुद्ध विभाव पर्याय निकृष्ट अर्थात् तुच्छ होने से उनके कारण 'महामुनि' अभिमान नहीं करते ॥६॥ क्षोभं गच्छन् समुद्रोऽपि, स्वोत्कर्षपवनेरितः । गुणौघान् बुद्बुदीकृत्य, विनाशयसि किं मुधा ? ॥ ७ ॥ ४२

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