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भावार्थ : कर्मविपाक वश पराधीन बने इस जगत को जानते हुए साधु दुःख पाने पर दीन नहीं बनते व सुख पाने पर विस्मित नहीं होते ॥१॥
येषां भ्रूभङ्गमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि । तैरहो कर्मवैषम्ये, भूपैर्भिक्षापि नाप्यते ॥ २ ॥
भावार्थ : जिनकी भृकुटी चढ़ने मात्र से पर्वत भी टूट जाते हैं, ऐसे बलवान् राजा भी जब कर्म की विषमता होने पर भीख मांगने पर मजबूर हो जाते हैं - उन्हें भीख भी नहीं मिलती । ये कैसा आश्चर्य है ? ||२|| जातिचातुर्यहीनोऽपि, कर्मण्यभ्युदयावहे । क्षणाद्कोऽपिराजा स्याच्छत्रच्छन्नदिगन्तरः ॥ ३ ॥
भावार्थ : अभ्युदय करने वाले कर्म का उदय होने पर जातिहीन, चातुर्यहीन और रंक होने पर भी क्षण भर में समस्त दिशाओं को छत्र से अविच्छिन्न करने वाला राजा बन जाता है ॥३॥
विषमा कर्मणः सृष्टिर्दृष्टा करभपृष्ठवत् । जात्यादिभूतिवैषम्यात्, का रतिस्तत्र योगिनः ? ॥ ४ ॥
भावार्थ : कर्म की यह सृष्टि ऊंट की पीठ के समान विषम है । (अर्थात् समानता का अभाव है) जाति आदि उत्पत्ति के वैषम्य से भरी इस सृष्टि में योगी को क्या प्रीति हो सकती है ? ॥४॥
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