Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 46
________________ भावार्थ : 'मुनि' इन्द्र के समान समृद्धि वाले हैं । समाधि रूप नन्दनवन, धैर्यरूप वज्र, समतारूप इन्द्राणी और ज्ञानरूप महाविमान मुनि के पास हैं ॥२॥ विस्तारितक्रियाज्ञान, चर्मच्छत्रो निवारयन् । मोहम्लेच्छमहावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः ? ॥ ३ ॥ भावार्थ : क्रिया और ज्ञान रूप चर्मरत्न और छत्र - रत्न के विस्तार से मोहरूप म्लेच्छो द्वारा की गई महावृष्टि को रोकने वाले ये मुनि क्या चक्रवर्ती नहीं ? ॥३॥ नवब्रह्मसुधाकुण्ड, निष्ठाधिष्ठायको मुनिः । नागलोकेशवद् भाति, क्षमां रक्षन् प्रयत्नतः ॥ ४ ॥ भावार्थ : नव प्रकार के ब्रह्मचर्यरूप अमृत कुंड की निष्ठा के सामर्थ्य से तथा प्रयत्नपूर्वक क्षमा की साधना करते हुए ये महामुनि नागलोक के स्वामी की तरह सुशोभित होते हैं ||४|| मुनिरध्यात्मकैलाशे, विवेकवृषभस्थितः । शोभते विरतिज्ञप्ति, गङ्गागौरीयुतः शिवः ॥ ५॥ भावार्थ : अध्यात्मरूप कैलाश पर्वत पर, विवेक रूप वृषभ पर विराजमान, चारित्र और ज्ञानरूप क्रमश: गंगा और पार्वती सहित महादेव की तरह 'मुनिराज ' शोभा प्राप्त करते हैं ॥५॥ ज्ञानदर्शनचन्द्रार्क, नेत्रस्य नरकच्छिदः । सुखसागरमग्नस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः ? ॥ ६ ॥ ४६

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