Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 47
________________ भावार्थ : ज्ञान और दर्शन रूप सूर्य तथा चन्द्र जिनके नेत्र हैं । नरक गति रूप नरकासुर का नाश करने वाले, सुख रूप समुद्र में मग्न रहते हुए 'मुनिराज' श्रीकृष्ण से क्या कम हैं ? ॥६॥ या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी । मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिस्ततोऽधिका ॥ ७ ॥ ___ भावार्थ : ब्रह्मा की सष्टि तो बाह्य जगत रूप है और बाह्य की अपेक्षा पर अवलम्बित है, जबकि मुनि की अन्तरंग गुणसृष्टि तो अन्यों की अपेक्षा रहित है, अतः यह अधिक अर्थात् उत्कृष्ट है ॥७॥ रत्नस्त्रिभिः पवित्रा या, स्रोतोभिरिव जाह्नवी । सिद्धयोगस्य साप्यर्हत्, पदवी न दवीयसी ॥ ८ ॥ भावार्थ : जिस प्रकार तीन प्रवाहों से पवित्र गंगा है, उसी प्रकार तीन रत्नों (ज्ञान, दर्शन, चारित्र) से युक्त तीर्थंकर पद भी परम निर्मल है । यह पद भी सिद्ध योगी मुनि के लिये दूर नहीं है ॥८॥ कर्मविपाकचिंतनाष्टकम्-21 दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात्, सुखं प्राप्य च विस्मितः । मुनिः कर्मविपाकस्य, जानन् परवशं जगत् ॥ १ ॥ ४७

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