Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 45
________________ तत्त्वदृष्टि को तो राजमहल में या हाथी अश्व संयुत वन में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता ||६|| भस्मना केशलोचेन, वपुर्धृतमलेन वा । महान्तं बाह्यदृग्वेत्ति, चित्साम्राज्येन तत्त्ववित् ॥ ७ ॥ भावार्थ : बाह्यदृष्टि व्यक्ति उसे महात्मा समझता है जो भस्म लगाता है, केश- लुंचन करता है और शरीर पर मैल धारण करता है । जबकि 'तत्त्वदृष्टि व्यक्ति' महात्मा की पहचान ज्ञान की प्रभुता से करता है ||७|| न विकाराय विश्वस्यो, पकारायैव निर्मिताः । स्फुरत्कारुण्यपीयूष, वृष्टयस्तत्त्वदृष्टयः ॥ ८ ॥ भावार्थ : अत्यन्त स्फुरित करुणारूप अमृत वर्षा करने वाले तत्त्व दृष्टि महापुरुषों का जन्म विकार हेतु नहीं अपितु विश्व पर उपकार के लिये होता है ॥८॥ सर्वसमृद्धाष्टकम्-20 बाह्यदृष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः । अन्तरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाः समृद्धयः ॥ १॥ भावार्थ : बाह्य दृष्टि की प्रवृत्ति बंद होने पर महापुरुष अपने अन्तर में ही रम रही सर्व समृद्धियों का आभास अर्थात् बोध करते हैं ॥१॥ समाधिर्नन्दनं धैर्यं, दम्भोलिः समता शची । ज्ञानं महाविमानं च, वासवश्रीरियं मुनेः ॥ २ ॥ ४५

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