Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 43
________________ भावार्थ : मर्यादा युक्त होने पर भी कभी - कभी पवन के कारण समुद्र में भी ज्वार भाटे आते हैं । उसी प्रकार तू अपने आत्म गुणों का व्यर्थ में विनाश क्यों करता है ||७|| निरपेक्षानवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्तयः । योगिनो गलितोत्कर्षाऽपकर्षानल्पकल्पनाः ॥ ८ ॥ भावार्थ : जिनका स्वरूप निरपेक्ष से युक्त अर्थात् अपेक्षा रहित ज्ञानमय है और उत्कर्ष तथा अपकर्ष की कल्पनाएँ जिनकी गल गई हैं अर्थात् समाप्त हो गई हैं, योगी ऐसे होते हैं ॥८॥ तत्त्वदृष्टयष्टकम् - 19 रूपे रूपवती दृष्टि, दृष्ट्वा रूपं विमुह्यति । मज्जत्यात्मनि नीरूपे, तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ॥ १ ॥ भावार्थ : रूपवती दृष्टि रूप को देखकर रूप में मोहित होती है जबकि रूपरहित तत्त्व दृष्टि तो रूपरहित आत्मा में मग्न होती है ॥१॥ भ्रमवाटी बहिर्दृष्टिभ्रमच्छाया तदीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाशया ॥ २ ॥ भावार्थ : बाह्य दृष्टि तो भ्रम की वाटिका है । बाह्य दृष्टि का प्रकाश भ्रान्ति की छाया है । परन्तु, भ्रान्ति रहित तत्त्वदृष्टि वाला साधक भ्रम की छाया में सुख की इच्छा से कभी शयन नहीं करता ॥२॥ ४३

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