Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 41
________________ भावार्थ : जिसे किसी से भी भय नहीं, ऐसा चारित्र जिसके हृदय में है, ऐसे अखंड ज्ञान रूप राज्य वाले साधु को भय कहाँ से होगा ? ॥८॥ ___ अनात्मप्रशंसाष्टकम्-18 गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया ॥ १ ॥ भावार्थ : यदि तू गुणों से पूर्ण नहीं है तो फिर क्यों अपनी प्रशंसा करता है? यदि तू गुणों से पूर्ण है तो अपनी प्रशंसा से क्या लाभ ? ॥१॥ श्रेयोद्रुमस्य मूलानि, स्वोत्कर्षाम्भःप्रवाहतः । पुण्यानि प्रकटीकुर्वन्, फलं किं समवाप्स्यसि ॥ २ ॥ भावार्थ : कल्याण रूपी वृक्ष की पुण्य रूपी जड़ को तू आत्म प्रशंसा रूपी पानी के प्रवाह से उघाड़ रहा है, ऐसा करने से तुझे क्या लाभ होगा ? ॥२॥ आलम्बिता हिताय स्युः, परैः स्वगुणरश्मयः । अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥ ३ ॥ भावार्थ : दूसरे लोग जब तुम्हारी गुण रूपी रश्मियाँ प्राप्त करते हैं, तो इसमें उनका हित होता है, पर आश्चर्य तो यह है कि यदि उन्हीं गुणों की रश्मियों को तुम स्वयं पकड़ते हो तो भवसागर में डूबा देती हैं वे रश्मियाँ ॥३॥ ४१

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