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मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत्, प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां, न तदानन्दचन्दने ॥ ५ ॥
भावार्थ : ज्ञानदृष्टि रूपी मयूरी (मोर) जब मनरूप वन में मग्नपूर्वक विचरण करती है तब आनंद रूप चंदन वृक्ष को भय रूप सर्व वेष्टित नहीं कर सकते ॥५॥ कृतमोहास्त्रवैफल्यं, ज्ञानवर्म बिभर्ति यः । क्व भीस्तस्य व वा भङ्गः, कर्मसङ्गरकेलिषु ? ॥ ६ ॥
भावार्थ : जिसने मोहरूप अस्त्र को विफल किया है, ऐसा ज्ञानरूप बख्तर धारण करने वाले मुनि को कर्मरूप शत्रु के साथ संग्राम क्रीडा करते हुए न तो भय लगता है, और न ही वह पराजित होता है ॥६॥ तूलवल्लघवो मूढा, भ्रमन्त्यभ्रे भयानिलैः । नैकं रोमापि तैर्ज्ञान, गरिष्ठानां तु कम्पते ॥ ७ ॥
भावार्थ : आक की रूई के समान जो हल्के हैं ऐसे मूढ पुरुष भय रूप वायु से आकाश में घूमते हैं, परन्तु जो ज्ञान से गरिष्ठ अर्थात् भारी हैं उन महापुरुषों का एक रोम भी कंपित नहीं होता ॥७॥ चित्ते परिणतं यस्य, चारित्रमकुतोभयम् । अखण्डज्ञानराज्यस्य, तस्य साधोः कुतो भयम् ॥ ८ ॥
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