Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ भावार्थ : मध्यस्थ पुरुषों के अलग-अलग मार्ग एक अक्षय उत्कृष्ट परमात्म स्वरूप को उसी प्रकार प्राप्त करते हैं जिस प्रकार नदियों के अलग-अलग प्रवाह समुद्र में मिल जाते हैं ||६|| स्वागमं रागमात्रेण, द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा, किन्तु मध्यस्थया दृशा ॥ ७ ॥ भावार्थ : स्व आगम का स्वीकार राग के कारण नहीं करते और न द्वेष के कारण पर शास्त्र का त्याग करते हैं, बल्कि मध्यस्थ दृष्टि से ही स्वीकार अथवा त्याग किया जाता है ||७|| मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनर्बन्धकादिषु । चारिसंजीवनीचार, न्यायादाशास्महे हितम् ॥ ८ ॥ भावार्थ : हम अपुनर्बंधकादि में मध्यस्थ दृष्टि संजीवनी का चारा चराने के दृष्टान्त से सभी के कल्याण की आशा करते हैं ॥८॥ निर्भयाष्टकम् - 17 यस्य नास्ति परापेक्षा, स्वभावाद्वैतगामिनः । तस्य किं न भयभ्रान्ति, क्लान्तिसंतानतानवम् ? ॥ १ ॥ भावार्थ : जिसे 'पर' की कोई अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव की एकता में अर्थात् निज भावों में रमण करने वाला ३८

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80