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भावार्थ : मध्यस्थ पुरुष का मनरूप बछड़ा युक्तिरूप गाय के पीछे दौडता है, जबकि तुच्छ आग्रही पुरुष का मनरूप बंदर युक्तिरूप गाय को पूंछ से खींचता है ॥२॥ नयेषु स्वार्थसत्येषु, मोघेषु परचालने ।। समशीलं मनो यस्य, स मध्यस्थो महामुनिः ॥ ३ ॥
भावार्थ : अपने-अपने अर्थ में सत्य और दूसरों को मिथ्या बताने में निष्फल ऐसे सर्व नयों में जिसका मन सम स्वभाव वाला है वह महामुनि मध्यस्थ है ॥३॥ स्वस्वकर्मकृतावेशाः, स्वस्वकर्मभुजो नराः । न रागं नापि च द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥ ४ ॥
भावार्थ : अपने-अपने कर्म में मनुष्य परवश बना हुआ है और अपने-अपने कर्म के फल को भोगने वाला है, ऐसा जानकर मध्यस्थ पुरुष राग और द्वेष को प्राप्त नहीं करता ॥४॥ मनः स्याद् व्यापृतं यावत्, परदोषगुणग्रहे । कार्यं व्यग्रं वरं तावन्, मध्यस्थेनात्मभावने ॥ ५ ॥
भावार्थ : जब तक मन दूसरों के दोष और गुण को ग्रहण करने में प्रवर्तमान हो तब तक मध्यस्थ पुरुष के लिये अपने मन को आत्मचिन्तन में जोड़ना श्रेष्ठ है ॥५॥ विभिन्ना अपि पन्थानः, समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परं ब्रह्म, प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥ ६ ॥
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