Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 35
________________ शुद्धेऽपि व्योम्नि तिमिराद्, रेखाभिर्मिश्रता यथा । विकारैर्मिश्रता भाति, तथात्मन्यविवेकतः ॥ ३ ॥ भावार्थ : जिसप्रकार तिमिर रोग होने से स्वच्छ आकाश में भी नील पीत रेखाओं द्वारा मिश्रत्व भासित होता है उसी प्रकार आत्मा में अविवेक के कारण विकारों द्वारा मिश्रत्व भासित होता है ॥३॥ यथा योधैः कृतं युद्धं, स्वामिन्येवोपचर्यते । शुद्धात्मन्यविवेकेन, कर्मस्कन्धोर्जितं तथा ॥ ४ ॥ भावार्थ : सैनिकों के द्वारा युद्ध करने पर भी राजा में ही उसका आरोपण होता है वैसे ही अविवेक द्वारा कर्मस्कंध का पुण्य पाप रूप फल शुद्ध आत्मा में ही आरोपित होता है ॥४॥ इष्टकाद्यपि हि स्वर्णं, पीतोन्मत्तो यथेक्षते । आत्माभेदभ्रमस्तद्वद्, देहादावविवेकिनः ॥ ५ ॥ भावार्थ : धतूरे का पान करने से उन्मादी जीव जिस प्रकार ईंट आदि को भी सोना मान लेता है, उसी प्रकार अविवेकी को जड़ शरीर आदि में आत्मा के अभेद का भ्रम हो जाता है ॥५॥ इच्छन् न परमान् भावान्, विवेकादेः पतत्यधः । परमं भावमन्विच्छन्, नाविवेके निमज्जति ॥ ६ ॥ भावार्थ : परमभाव अर्थात् आत्मा के शुद्ध गुणों को नहीं चाहने वाली आत्मा विवेक रूप पर्वत से नीचे गिर

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