Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 33
________________ भावार्थ : निपुण बुद्धि वाला लक्ष्मी को समुद्री - तरंगों के समान चंचल, आयुष्य को वायु के समान अस्थिर, और शरीर को बादल के समान नश्वर विचारता है ||३|| शुचीन्यप्यशुचीकर्तुं समर्थेऽशुचिसंभवे । देहे जलादिना शौच, भ्रमो मूढस्य दारुणः ॥ ४ ॥ भावार्थ : पवित्र पदार्थ को अपवित्र करने में समर्थ और अपवित्र पदार्थ में उत्पन्न शरीर को पानी आदि से पवित्र करने का मूढ आत्माओं का भ्रम भयंकर है ||४|| यः स्नात्वा समताकुण्डे, हित्वा कश्मलजं मलम् । पुनर्न याति मालिन्यं सोऽन्तरात्मा परः शुचिः ॥ ५ ॥ भावार्थ : जो समतारूप कुण्ड में स्नान करके पाप से उत्पन्न मैल का त्याग कर दुबारा मलिन नहीं होता, वह अन्तरात्मा परम पवित्र है ॥५॥ > आत्मबोधो नवः पाशो, देहगेहधनादिषु । यः क्षिप्तोऽप्यात्मना तेषु, स्वस्य बन्धाय जायते ॥ ६ ॥ भावार्थ : शरीर, घर और धन आदि में आत्मत्व की बुद्धि एक नया बंधन है । शरीर आदि में आत्मा द्वारा डाला गया यह बंधन उस आत्मा के बंध के लिये हो जाता है ||६|| मिथोयुक्तपदार्थाना, मसंक्रमचमत्क्रिया । चिन्मात्रपरिणामेन, विदुषैवानुभूयते ॥ ७ ॥ ३३

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