Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 34
________________ भावार्थ : परस्पर संयुक्त बने जीव-पुद्गलादि पदार्थों की भिन्नता रूप चमत्कार एक विद्वान् के द्वारा ही ज्ञान मात्र परिणाम से अनुभव किया जाता है ॥७॥ अविद्यातिमिरध्वंसे, दृशा विद्याञ्जनस्पृशा । पश्यन्ति परमात्मान, मात्मन्येव हि योगिनः ॥ ८ ॥ भावार्थ : अज्ञानरूप अंधकार का नाश होने पर विद्यारूप अंजन को स्पर्श करने वाली दृष्टि से योगीजन अपनी आत्मा में ही परमात्मा का दर्शन करते हैं ॥८॥ विवेकाष्टकम्-15 कर्म जीवं च संश्लिष्टं, सर्वदा क्षीरनीरवत् । विभिन्नीकुरुते योऽसौ, मुनिहंसो विवेकवान् ॥ १ ॥ भावार्थ : हमेशा दूध और पानी के समान मिले हुए जीव और कर्म को जो मुनि रूप हंस अलग करता है वही विवेकी है ॥१॥ देहात्माद्यविवेकोऽयं, सर्वदा सुलभो भवे । भवकोट्यापि तद्भेद, विवेकस्त्वतिदुर्लभः ॥ २ ॥ भावार्थ : संसार में देह और आत्मा का अभेद रूप अविवेक सर्वदा सुलभ है जबकि उसका भेद ज्ञान कोटि भवों द्वारा भी प्राप्त नहीं होता अर्थात् अति दुर्लभ है ॥२॥

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