________________
ज्योतिर्मयीव दीपस्य, क्रिया सर्वापि चिन्मयी । यस्यानन्यस्वभावस्य, तस्य मौनमनुत्तरम् ॥ ८ ॥
भावार्थ : जिस प्रकार दीपक की सभी क्रियाएँ (ज्योति का ऊँचा नीचा आड़ा टेढा होना) प्रकाशमय होती है उसी प्रकार अन्य स्वभाव में अपरिणत जिस आत्मा की सभी क्रियाएँ ज्ञानमय है उसका मुनित्व सर्वोत्कृष्ट है ॥८॥
____ विद्याष्टकम्-14 नित्यशुच्यात्मताख्याति- रनित्याशुच्यनात्मसु । अविद्या तत्त्वधीविद्या, योगाचार्यैः प्रकीर्तिता ॥ १ ॥
भावार्थ : अनित्य में नित्य की, अशुचि में शुचि की और आत्मा से भिन्न पुद्गलादि में आत्मत्व बुद्धि अविद्या कहलाती है तथा यथार्थ तत्त्व की बुद्धि विद्या कहलाती है ऐसा योगाचार्यों का कथन है ॥१॥ यः पश्येन्नित्यमात्मान, मनित्यं परसङ्गमम् । छलं लब्धुं न शक्नोति, तस्य मोहमलिम्लुचः ॥ २ ॥
भावार्थ : जो आत्मा को सदा नित्य देखता है और पर वस्तु के सम्बन्धों को अनित्य देखता है उसके छिद्र प्राप्त करने में मोहरूप चोर समर्थ नहीं हो सकता ॥२॥ तरङ्गतरलां लक्ष्मीमायुर्वायुवदस्थिरम् । अदभ्रधीरनुध्याये, दभ्रवद् भङ्गुरं वपुः ॥ ३ ॥