Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 30
________________ मौनाष्टकम्-13 मन्यते यो जगत्तत्त्वं, स मुनिः परिकीर्तितः । सम्यक्त्वमेव तन्मौनं, मौनं सम्यक्त्वमेव वा ॥ १ ॥ भावार्थ : जो जगत के स्वरूप को जानता है उसी को मुनि कहा जाता है इसलिए सम्यकत्व ही मुनित्व है और मुनित्व ही सम्यक्त्व है ॥१॥ आत्मात्मन्येव यच्छुद्धं, जानात्यात्मानमात्मना । सेयं रत्नत्रये ज्ञप्ति,-रुच्याचारैकता मुनेः ॥ २ ॥ भावार्थ : आत्मा आत्मा में ही शुद्ध आत्मा को आत्मा के द्वारा जानता है ऐसी ज्ञान, दर्शन और चरित्र रूप रत्नत्रयी में श्रद्धा और आचार की अभेद परिणति मुनि को होती है ॥२॥ चारित्रमात्मचरणात्, ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः । शुद्धज्ञाननये साध्यं, क्रियालाभात् क्रियानये ॥ ३ ॥ भावार्थ : आत्मा में आचरण से चरित्र है ऐसे शुद्ध ज्ञान नय के अभिप्राय से ज्ञान और दर्शन मुनि के साध्य हैं । क्रिया नय के अभिप्राय से व ज्ञान के फलरूप क्रिया के लाभ से साध्य रूप है ॥३॥ यतः प्रवृत्तिर्न मणौ, लभ्यते वा न तत्फलम् । अतात्त्विकी मणिज्ञप्तिर्मणिश्रद्धा च सा यथा ॥ ४ ॥ ३०

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