Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ संयोजितकरैः के के, प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहैः । अमात्रज्ञानपात्रस्य, निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ २ ॥ भावार्थ : स्पृहावान् पुरुष हाथ जोड़कर किसकिसके आगे प्रार्थना नहीं करते ? जबकि अपरिमित ज्ञान के पात्र निःस्पृह साधु के लिये सारा जगत तृण समान होता है ॥२॥ छिन्दन्ति ज्ञानदात्रेण, स्पृहाविषलतां बुधाः । मुखशोषं च मूर्च्छा च, दैन्यं यच्छति यत्फलम् ॥ ३ ॥ भावार्थ : मुखशोष (मुँह का सूखना), मूर्च्छा और दीनता रूप फल देने वाली लालसा रूप विषलता को अध्यात्म ज्ञानी पंडित लोग ज्ञान रूप हाँसिये से काट डालते हैं ॥३॥ निष्कासनीया विदुषा, स्पृहा चित्तगृहाद् बहिः । अनात्मरतिचाण्डालीसङ्गमङ्गीकरोति या ॥ ४ ॥ भावार्थ : विद्वान पुरुषों के द्वारा तो मन रूप घर से तृष्णा बाहर निकालने योग्य है । जो तृष्णा से भिन्न पुद्गलों में रति रूप चांडालिनी का संग अंगीकार करती है ॥४॥ स्पृहावन्तो विलोक्यन्ते, लघवस्तृणतूलवत् । महाश्चर्यं तथाप्येते, मज्जन्ति भववारिधौ ॥ ५ ॥ २८

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80