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ऐसा चिंतन करने वाला आत्मज्ञानी कैसे लिप्त हो सकता है ॥२॥ लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गलैरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३॥
भावार्थ : पुद्गलों का स्कंध (ही) पुद्गलों द्वारा लिप्त होता है, मैं नहीं । जिस प्रकार अञ्जन के द्वारा विचित्र आकाश (लिप्त नहीं हो सकता वैसे) । इस प्रकार ध्यान करने वाली आत्मा लिप्त नहीं होती ॥३॥ लिप्तताज्ञानसम्पात, प्रतिघाताय केवलम् । निर्लेपज्ञानमग्नस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥ ४ ॥ ___ भावार्थ : "आत्मा निर्लेप है" ऐसे निर्लेप ज्ञान में मग्न आत्मा को सभी आवश्यक आदि क्रियाएँ केवल "आत्मा कर्मबद्ध है" ऐसी लिप्तता के ज्ञान के आगमन को रोकने के लिये उपयोगी बनती है ॥४॥ तपःश्रुतादिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते । भावनाज्ञानसम्पन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥ ५ ॥
भावार्थ : तप और श्रुत आदि से अभिमानी बनी आत्मा क्रियावान होने पर भी लिप्त होती है। भावना ज्ञान से संपन्न आत्मा क्रियारहित होने पर भी लिप्त नहीं होती ॥५॥
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