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भावार्थ : पुद्गलों के परिभोग से अतृप्त ऐसे (मनुष्यों को) विषय के तरंग रूप जहर का उद्गार (डकार) प्रकट होता है । ज्ञान से तृप्त साधकों को तो ध्यान रूप अमृत के उद्गार (डकार) की परम्परा होती है ॥७॥ सुखिनो विषयातप्ता, नेन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्यहो । भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः ॥ ८ ॥ ____ भावार्थ : विषयों से अतृप्त इन्द्र, उपेन्द्र आदि भी सुखी नहीं हैं यह आश्चर्य है । जगत में ज्ञान से तृप्त कर्ममल रहित ऐसा एक साधु ही सुखी है ॥८॥
निर्लेपाष्टकम्-11 संसारे निवसन् स्वार्थ, सज्जः कज्जलवेश्मनि । लिप्यते निखिलो लोको, ज्ञानसिद्धो न लिप्यते ॥१॥
भावार्थ : काजल के घर समान संसार में रहता हुआ स्वार्थ से युक्त सारा लोक कर्म से लिप्त होता है जबकि ज्ञान से परिपूर्ण जीव (ऐसे संसार में रहते हुए भी) लिप्त नहीं होता ॥१॥ नाहं पुद्गलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि न । नानुमन्तापि चेत्यात्म, ज्ञानवान् लिप्यते कथम् ॥ २ ॥
भावार्थ : पौद्गलिक भावों का न मैं करने वाला हूँ, न कराने वाला हूँ और न मैं इसका अनुमोदन करने वाला हूँ
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