Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ भावार्थ : वचनानुष्ठान से असंग क्रिया की योग्यता प्राप्त होती है । वह ज्ञान और क्रिया की अभेद भूमि है और आत्मा के आनंद द्वारा भीगी हुई है ॥८॥ तृप्त्यष्टकम्-10 पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः ॥ १ ॥ भावार्थ : ज्ञानरूप अमृत पीकर, क्रियारूप कल्पलता के फल को खाकर, समभाव रूप ताम्बूल का आस्वाद लेकर साधु अत्यन्त तृप्ति को प्राप्त करता है ॥ १ ॥ स्वगुणैरेव तृप्तिश्चेदाकालमविनश्वरी । ज्ञानिनो विषयैः किं तैर्यैर्भवेत्तृप्तिरित्वरी ॥ २ ॥ भावार्थ : यदि ज्ञानी को अपने ज्ञानादि गुणों द्वारा ही कभी नष्ट न हो ऐसी तृप्ति होती है तो फिर जिन विषयों के द्वारा स्वल्प काल की ही तृप्ति होती है, उन विषयों का क्या प्रयोजन है ? ॥२॥ या शान्तैकरसास्वादाद्, भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया । सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि ॥ ३ ॥ भावार्थ : शान्तरस रूप अद्वितीय रस के अनुभव से जो अतीन्द्रिय तृप्ति होती है वह जिह्येन्द्रिय द्वारा षट् रस के भोजन से भी नहीं हो सकती ॥३॥ २३

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80