Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 22
________________ भावार्थ : क्रिया के बाह्य भाव को आगे रखकर जो लोक व्यवहार से क्रिया निषेध करते हैं वे मुँह में निवाला रखे बिना ही तृप्ति पाना चाहते हैं ||४|| गुणवद्बहुमानादेर्नित्यस्मृत्या च सत्क्रिया । जातं न पातयेद् भाव, मजातं जनयेदपि ॥ ५ ॥ भावार्थ : गुणवंत के बहुमान आदि से तथा स्वीकृत नियमों के नित्य स्मरण से शुभ क्रिया उत्पन्न भावों की रक्षा करती है अर्थात् गिरने नहीं देती और अनुत्पन्न भावों को भी प्रकट करती है ॥५॥ क्षायोपशमिके भावे, या क्रिया क्रियते तया । पतितस्यापि तद्भाव, प्रवृद्धिर्जायते पुनः ॥ ६॥ भावार्थ : क्षायोपशमिक भाव में जो क्रिया की जाती है उस क्रिया के द्वारा पतित भावों की भी विशुद्धि एवं वृद्धि होती है ॥६॥ गुणवृद्ध्यै ततः कुर्यात्, क्रियामस्खलनाय वा । एकं तु संयमस्थानं, जिनानामवतिष्ठते ॥ ७ ॥ भावार्थ : इसलिए गुण की वृद्धि के लिये अथवा उत्पन्न भाव गिर न जाय इसलिए क्रिया करनी चाहिये । एक संयम का स्थान तो केवल ज्ञानी को ही रहता है ॥७॥ वचोऽनुष्ठानतोऽसङ्ग, क्रियासङ्गतिमङ्गति । सेयं ज्ञानक्रियाऽभेद, भूमिरानन्दपिच्छला ॥ ८ ॥ २२

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