Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 21
________________ क्रियाष्टकम्-9 ज्ञानी क्रियापरः शान्तो, भावितात्मा जितेन्द्रियः । स्वयं तीर्णो भवाम्भोधेः, परांस्तारयितुं क्षमः ॥ १ ॥ भावार्थ : सभ्यग् ज्ञानी, क्रिया में तत्पर, शान्त, भावित और इन्द्रिय विजेता ऐसी आत्मा स्वयं संसाररूपी समुद्र से तिरी हुई है और अन्यों को भी तारने में समर्थ है ॥१॥ क्रियाविरहितं हन्त, ज्ञानमात्रमनर्थकम् । गतिं विना पथज्ञोऽपि नाप्नोति पुरमीप्सितम् ॥ २ ॥ , भावार्थ : क्रियारहित अकेला ज्ञान निश्चित ही असमर्थ है । मार्ग का जानकार भी चलने की क्रिया के अभाव में इच्छित नगर नहीं पहुँच सकता ॥२॥ स्वानुकूलां क्रियां काले, ज्ञानपूर्णोऽप्यपेक्षते । प्रदीपः स्वप्रकाशोऽपि तैलपूर्त्यादिकं यथा ॥ ३ ॥ , भावार्थ : जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशरूप है फिर भी तेल डालने आदि की क्रियाएँ अपेक्षित रहती हैं उसी प्रकार पूर्ण ज्ञानी भी समयानुसार स्वभाव रूप कार्य के अनुकूल क्रियाओं की अपेक्षा रखता है ||३|| बाह्यभावं पुरस्कृत्य, ये क्रियाऽव्यवहारतः । वदने कवलक्षेपं, विना ते तृप्तिकाङ्क्षिणः ॥ ४ ॥ २१

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