Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ अलिप्तो निश्चयेनात्मा, लिप्तश्च व्यवहारतः । शुद्धयत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥ ६ ॥ भावार्थ : निश्चय नय से जीव कर्म से बद्ध नहीं है लेकिन व्यवहार नय से जीव कर्म से बद्ध है । ज्ञानी अलिप्त दृष्टि से और क्रियावान लिप्त दृष्टि से शुद्ध होता है ॥६॥ ज्ञानक्रियासमावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः ।। भूमिकाभेदतस्त्वत्र, भवेदेकैकमुख्यता ॥ ७ ॥ भावार्थ : दोनों दृष्टियाँ एक साथ खुलने पर ज्ञान और क्रिया की एकता है । यहाँ ज्ञान क्रिया में गुणस्थान रूप अवस्था के भेद से एक-एक की मुख्यता होती है ॥७॥ सज्ञानं यदनुष्ठानं, न लिप्तं दोषपङ्कतः । शुद्धबुद्धस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः ॥ ८ ॥ भावार्थ : ज्ञानसहित जिसका क्रियारूप अनुष्ठान दोषरूप कचरे से लिप्त नहीं है ऐसे और शुद्ध बुद्ध ज्ञान रूप समभाव वाले भगवन्त को नमस्कार हो ॥८॥ निःस्पृहाष्टकम्-12 स्वभावलाभात् किमपि, प्राप्तव्यं नावशिष्यते । इत्यात्मैश्वर्यसम्पन्नो, निःस्पृहो जायते मुनिः ॥ १ ॥ भावार्थ : आत्म स्वभाव की प्राप्ति के अलावा और कुछ भी प्राप्त करने योग्य शेष नहीं रहता, इस प्रकार के आत्म-ऐश्वर्य से सम्पन्न साधु निःस्पृह होता है ॥१॥ २७

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80