Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 29
________________ भावार्थ : स्पृहावान् पुरुष तृण और आक की रूई के समान हल्के दिखते हैं फिर भी संसार समुद्र में डूब जाते हैं, यह आश्चर्य है ॥५॥ गौरवं पौरवन्द्यत्वात्, प्रकृष्टत्वं प्रतिष्ठया । ख्यातिं जातिगुणात्स्वस्य, प्रादुष्कुर्यान्न निःस्पृहः ॥ ६ ॥ भावार्थ : स्पृहारहित साधु नगरवासियों द्वारा वन्दनीय होने पर भी अपना बड़प्पन, अपनी प्रतिष्ठा, ख्याति और उत्तम जातीयता आदि गुणों से अपनी प्रसिद्धि प्रकट न करे ॥६॥ भूशय्या भैक्षमशनं, जीर्णं वासो वनं गृहम् । तथापि नि:स्पृहस्याहो, चक्रिणोऽप्यधिकं सुखम् ॥ ७ ॥ भावार्थ : स्पृहारहित साधु के लिये पृथ्वी शय्या है, भिक्षा में जो मिला वह भोजन है, फटे पुराने वस्त्र और वनरूप घर है फिर भी आश्चर्य है कि चक्रवर्ती से भी ज्यादा उन्हें सुख है ॥७॥ परस्पृहा महादुःखं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ ८ ॥ भावार्थ : पर की आशा - लालसा करना महादु:ख है और निःस्पृहत्व महासुख है, यही संक्षेप में सुख और दुःख का लक्षण कहा गया है ॥८॥ २९

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