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संसारे स्वप्नवन् मिथ्या, तृप्तिः स्यादाभिमानिकी । तथ्या तु भ्रान्तिशून्यस्य, सात्मवीर्यविपाककृत् ॥ ४ ॥
भावार्थ : संसार में अभिमान मान्यता से प्राप्त हुई तृप्ति स्वप्न की तरह ( मिथ्या ) होती है । सच्ची तृप्ति तो मिथ्या ज्ञान रहित को ही होती है और वह आत्मा के वीर्य को पुष्ट करने वाली होती है ॥४॥
पुद्गलैः पुद्गलास्तृप्तिं, यान्त्यात्मा पुनरात्मना । परतृप्तिसमारोपो, ज्ञानिनस्तन्न युज्यते ॥ ५ ॥
भावार्थ : पुद्गलों के द्वारा पुद्गल तृप्ति प्राप्त करते हैं और आत्मगुणों के द्वारा आत्मा तृप्त होती है । इस कारण से पुद्गल तृप्ति में आत्म - तृप्ति घटित नहीं होती ऐसा ज्ञानियों का अनुभव है ॥५॥
मधुराज्यमहाशाका, ग्राह्ये बाह्ये च गोरसात् । परब्रह्मणि तृप्तिर्या, जनास्तां जानतेऽपि न ॥ ६॥
भावार्थ : सुन्दर राज्य में बड़ी आशा जिनको है ऐसे पुरुषों द्वारा प्राप्त न हो सके ऐसी वाणी से अगोचर परमात्मा के विषय में जो तृप्ति होती है उसे लोग जानते भी नहीं हैं ||६||
विषयोर्मिविषोद्गारः स्यादतृप्तस्य पुद्गलैः । ज्ञानतृप्तस्य तु ध्यान, सुधोद्गारपरंपरा ॥ ७ ॥
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