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स्वभावलाभसंस्कार, कारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ॥ ३ ॥
भावार्थ : जो ज्ञान आत्म स्वभाव की प्राप्ति के संस्कार का कारणभूत है, वही ज्ञान इच्छनीय है उसके अलावा जो भी पढ़ा जाता है वह तो बुद्धि का अंधत्व है, एसी प्रकार महात्मा पतंजलीने भी कहा हैं ॥३॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा ।। तत्त्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥ ४ ॥
भावार्थ : अनिश्चित अर्थवाले वाद और प्रतिवाद करने वाले जीव आगे बढ़ने में घाणी के बैल तरह तत्व निर्णय को प्राप्त नहीं कर पाते हैं ॥४॥ स्वद्रव्यगुणपर्याय, चर्या वर्या परान्यथा । इति दत्तात्मसंतुष्टि- सृष्टिज्ञानस्थितिर्मुनेः ॥ ५ ॥
भावार्थ : अपने द्रव्य गुण और पर्याय में परिणत रहना श्रेष्ठ है परद्रव्य-गुण-पर्याय में परिणत होना श्रेष्ठ नहीं है, इस प्रकार जिसने अपनी आत्मा को संतोष दिया है ऐसी संक्षेप से रहस्य ज्ञान की मर्यादा मुनि को होती है ॥५॥ अस्ति चेद् ग्रन्थिभिज्ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः ? । प्रदीपाः क्वोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् ? ॥ ६ ॥
भावार्थ : ग्रन्थि भेद से जिसे ज्ञान हो गया है, उसको अनेक प्रकार के शास्त्रों का बंधन किस काम का है ? जहाँ
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