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भावार्थ : इन्द्रियों के विषय में मूढ बना हुआ जीव पर्वत की मिट्टी में भी धन देखकर दौड़ता रहता है लेकिन अपने भीतर भरे अनादि अनंत ज्ञानरूप धन को नहीं देखता ॥५॥
पुरः पुरः स्फुरत्तृष्णा, मृगतृष्णानुकारिषु । इन्द्रियार्थेषु धावन्ति, त्यक्त्वा ज्ञानामृतं जडाः ॥ ६ ॥ जिनकी तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, ऐसे मूर्ख पुरुष ज्ञान रूप अमृत को छोड़कर मृग तृष्णा रूप इन्द्रियों के विषयों में दौड़ता रहता है ||६|| पतङ्गभृङ्गमीनेभ, सारङ्गा यान्ति दुर्दशाम् । एकैकेन्द्रियदोषाच्चेद्, दुष्टैस्तैः किं न पञ्चभिः ॥ ७ ॥
भावार्थ : तितली, भ्रमर, हाथी और हिरण ये एकएक इन्द्रिय में आसक्त होकर जब दुर्दशा को प्राप्त करते हैं तो दुष्ट पांचों इन्द्रियों द्वारा क्या नहीं हो सकता ? ॥७॥ विवेकद्विपहर्यक्षैः, समाधिधनतस्करैः । इन्द्रियैर्योन जितोऽसौ, धीराणां धुरि गण्यते ॥ ८ ॥
भावार्थ : विवेकरूप हाथी का नाश करने में सिंह के समान और समाधिरूप धन को लूटने वाली दुष्ट इन्द्रियों से जो नहीं हारा, वह धीर पुरुषों में अग्र माना जाता है ॥८॥ त्यागाष्टकम्-8
संयतात्मा श्रये शुद्धोपयोगं पितरं निजम् । धृतिमम्बां च पितरौ तन्मां विसृजतं ध्रुवम् ॥ १ ॥
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