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स्वयम्भूरमणस्पद्धि,-वर्धिष्णुसमतारसः । मुनिर्येनोपमीयेत, कोऽपि नासौ चराचरे ॥ ६ ॥
भावार्थ : जिस मुनि का समतारस स्वयंभूरमण समुद्र की स्पर्धा करता हो, इस प्रकार वृद्धि प्राप्त करता है, उस मुनि की तुलना करने योग्य कोई भी पदार्थ समग्र विश्व में नहीं हैं ॥६॥ शमसूक्तसुधासिक्तं, येषां नक्तंदिनं मनः । कदापि ते न दह्यन्ते रागोरगविषोर्मिभिः ॥ ७ ॥
भावार्थ : जिनका मन रात और दिन सम के सुभाषित अमृत द्वारा सिंचित है, वे कभी भी राग रूप सर्प के जहर की उर्मियों द्वारा नहीं जलते हैं ॥७॥ गर्जद्ज्ञानगजोत्तुङ्ग- रङ्गद्ध्यानतुरङ्गमाः । जयन्ति मुनिराजस्य, शमसाम्राज्यसंपदः ॥ ८ ॥
भावार्थ : जिनके पास गर्जना करते ज्ञानरूप हाथी और खेलते हुए ध्यानरूप घोड़े हैं, ऐसे मुनिराज रूप राजा के शमरूप साम्राज्य की संपत्ति सदा जयवन्त रहती है ॥८॥
इन्द्रिय-जयाष्टकम्-7 बिभेषि यदि संसारान्, मोक्षप्राप्तिं च काङ्क्षसि । तदेन्द्रियजयं कर्तुं, स्फोरय स्फार पौरुषम् ॥ १ ॥