Book Title: Gyansara Ashtak
Author(s): Yashovijay
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 15
________________ अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन समं जगत् । आत्माभेदेन यः पश्येदसौ मोक्षंगमी शमी ॥ २ ॥ भावार्थ : जो कर्म की विषमता को नहीं चाहता, परमात्मा के अंश द्वारा बने एक स्वरूप वाले जगत को जो अपनी आत्मा से अभिन्न देखता है, वह उपशम वाली आत्मा अवश्य मोक्षगामी होती है ॥२॥ आरुरुक्षुर्मुनिर्योगं, श्रयेद् बाह्यक्रियामपि । योगारूढः शमादेव, शुद्ध्यत्यन्तर्गतक्रियः ॥ ३॥ भावार्थ : समाधि योग में ऊपर चढ़ने की आकांक्षा वाला साधु बाह्य आचार का भी सेवन करता है, लेकिन योगारूढ़ आभ्यन्तर क्रियावान् साधु तो समभाव से ही शुद्ध होता है ॥३॥ ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः, शमपूरे प्रसर्पति । विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् ॥ ४॥ भावार्थ : ध्यान रूप वर्षा से दया रूप नदी का उपशम रूप पूर बढ़ने से किनारे पर स्थित विकार रूप वृक्ष जड़ मूल से उखड़ जाते हैं ||४|| ज्ञानध्यानतपःशील, सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो ! । तं नाप्नोति गुणं साधु, र्यं प्राप्नोति शमान्वितः ॥ ५ ॥ भावार्थ : समयुक्त साधु जिस गुण को प्राप्त करता है । अहो ! ज्ञान-ध्यान-तप - शील और सम्यक्त्व सहित साधु भी उस गुण को प्राप्त नहीं कर सकता ॥५॥ १५

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