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भावार्थ : यदि तू संसार से डरता है और मोक्ष प्राप्ति की आकांक्षा रखता है तो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए उग्र पराक्रम प्रकट कर ॥१॥ वृद्धास्तृष्णाजलापूर्णं, रालवालैः किलेन्द्रियैः । मूर्छामतुच्छां यच्छन्ति, विकारविषपादपाः ॥ २ ॥
_ भावार्थ : तृष्णारूप जल से परिपूर्ण इन्द्रियाँ रूप क्यारियों में पोषित विकाररूप विषवक्ष आत्मा को गाढ मूच्छित करते हैं ॥२॥ सरित्सहस्त्रदुष्पूर- समुद्रोदरसोदरः । तृप्तिमान्नेन्द्रियग्रामो, भव तृप्तोऽन्तरात्मना ॥ ३ ॥
भावार्थ : हजारों नदियों से भी जिसे पूर्ण नहीं किया जा सकता, ऐसे समुद्र के पेट के समान इन्द्रियों का समूह तृप्त नहीं होता, ऐसा जानकर अन्तरात्म भाव से तृप्त बन ॥३॥ आत्मानं विषयैः पाशै-र्भववास-पराडमुखम् । इन्द्रियाणि निबध्नन्ति, मोहराजस्य किङ्कराः ॥ ४ ॥
भावार्थ : संसारवास से उद्विग्न बनी आत्मा को भी मोह राजा की नौकररूप इन्द्रिया विषयरूप बंधन से बांध देती हैं ॥४॥ गिरिमृत्स्नां धनं पश्यन्, धावतीन्द्रियमोहितः । अनादिनिधनं ज्ञानं, धनं पार्श्वे न पश्यति ॥ ५ ॥
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