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ऐसे लोगों के सामने अपना सुखानुभव कहता हुआ आश्चर्य वाला बनता है ॥७॥ यश्चिद्दर्पणविन्यस्त-समस्ताचारचारुधीः । क्वक नाम स परद्रव्ये ऽनुपयोगिनि मुह्यति ॥ ८ ॥
भावार्थ : ज्ञान रूपी दर्पण में स्थापित समस्त ज्ञानादि पाँच आचारों द्वारा जो सुन्दर बुद्धि वाला है, ऐसा योगी अनुपयोगी पर - द्रव्यों में आसक्त क्यों होगा ? ॥८॥
ज्ञानाष्टकम्-5 मज्जत्यज्ञः किलाज्ञाने, विष्ठायामिव शूकरः । ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥
भावार्थ : जिस प्रकार शूकर विष्ठा में मग्न होता है वैसे ही अज्ञानी अज्ञान में ही मग्न हो जाता है। जिस प्रकार हंस मान सरोवर में निमग्न होता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष ज्ञान में ही निमग्न होते हैं ॥१॥ निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥ २ ॥
भावार्थ : एक मात्र मोक्ष साधक पद बारम्बार आत्मा द्वारा भावित होता है अर्थात् बार-बार चिन्तन किया जाता है वही ज्ञान परिपूर्ण है। ज्यादा ज्ञान का आग्रह नहीं है ॥२॥